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Opinion: कहीं उन्माद तो कहीं बहस में हत्या, अस्वीकृति को सहजता के साथ स्वीकारना भी सीखें



<p model="text-align: justify;">थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कि सभी फूलों का रंग सफेद है, सबके चेहरे एक जैसे हैं या फिर दुनिया के सभी पहाड़ एक तरह के और उनकी ऊंचाई भी एक सी है. अगर ऐसा हो तो गुलाब, सबसे खूबसूरत पुरुष-महिला का नाम और एवरेस्ट की बात नहीं होती. इनकी भिन्नता ही इन्हें खास बनाती है. यही बात हमारे विचारों के साथ भी है. सोचिए, जब सभी लोगों के विचार एक से हो जाएं तो दुनिया का वर्तमान स्वरूप कैसे होता. अनुमान लगाना मुश्किल है लेकिन खूबसूरत तो नहीं होती. पिछले दिनों जयपुर से मुंबई जा रही ट्रेन में बहस के बाद जो गोली कांड हुआ. वह विचारों की भिन्नता का नहीं बल्कि उन्माद के चरम का है.</p>
<p model="text-align: justify;">पिछले कुछ महीनों में ऐसी घटनाएं कई बार हुई हैं. जून में यूपी के मिर्जापुर में ड्राइवर ने टैक्सी में बैठे युवक टैक्सी से नीचे फेंकने के बाद गाड़ी से रौंंद दिया क्योंकि उससे राजनीतिक बहस हो गई थी. जून में ही सहारनपुर में चार युवकों ने एक व्यक्ति को हत्या छोटी बहस के बाद कर दी. जुलाई 2022 में दिल्ली के शालीमार क्षेत्र में एक दोस्त ने अपने दोस्त की हत्या केवल मामूली बहस के बाद कर दी.&nbsp;</p>
<p model="text-align: justify;">प्रसिद्ध दार्शनिक वाल्तेयर का कहना कि "हो सकता है कि मैं आपके विचारों से असहमत हूं, लेकिन मैं आपके विचारों का सम्मान करूंगा." जब भी विचारों के स्तर पर विमर्श करते हैं तो हमें सामने वाले की तरफ से होकर भी कुछ समय के लिए सोचें. बहुत से लोग जवाब पहले से ही सोचकर बहस का हिस्सा बनते हैं. अपने सोचे हुए जवाब के इर्द-गिर्द ही रहते हैं. कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सिर्फ वहीं बातें सुनते हैं जिसमें उनका स्वार्थ पूर्ण होता है, बाकी को गौण कर देते हैं. आजकल सिर्फ हां सुनने की भी एक परंपरा सी है, लोग ”ना” तो सुनना ही नहीं चाहते.</p>
<p model="text-align: justify;">एक तरफ प्यार के बाद एसिड अटैक, ब्लैकमेल और हत्या की हजारों उदारहण हैं. समाज में अस्वीकृत को स्वीकारने को सामान्य (नॉर्मलाइजेशन ऑफ रिजेक्शन) किया जाना चाहिए. इसे केवल सामान्य प्रक्रिया की तरह ही देखना जरूरी है. हमें खुद और अपने बच्चों को सफल होने के लिए तो प्रेरित करें, लेकिन अगर कभी उन्हें अस्वीकार का सामना करना पड़े तो उसे सहजता से लें, इसकी सीख लेनी-देनी जरूरी है.&nbsp;</p>
<p model="text-align: justify;">अनेक विद्वानों का कहना है कि वात-प्रतिवाद में विवाद और तर्क-वितर्क में कुतर्क वे ही करते हैं जिनके पास शब्द और तर्कशक्ति की कमी होती है. जो अपनी बातों को कहने या सामने रखने में सक्षम हैं वे गंभीरता से अपनी बात रखते हैं, वहीं जिनके पास फैक्ट नहीं है, गुस्सा करते हैं. किसी ने कहा है कि आप उतना ही बोलें जिसके दस गुना तक आपमें सुनने की क्षमता हो.&nbsp;</p>
<p model="text-align: justify;">जब भी तर्क-विर्तक किया जाए तो जरूरी नहीं कि आपकी बातों से सामने वाला सहमत ही हो जाए. अगर सामने वाले की बात अच्छी है और सही फैक्ट के साथ है तो खुद भी सहमत हों और इसके लिए उसे धन्यवाद भी दें. तर्क-विर्तक का उद्देश्य विवाद करना नहीं बल्कि किसी विषय के तह तक जाकर सही जानकारी प्राप्त करना है. इसमें "निष्पक्षता" जरूरी है क्योंकि दुनिया में कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं है. इसका यह भी अर्थ नहीं लेना चाहिए सामने वाला मूर्ख ही है. अगर यह मानकर चलेंगे तो धोखा खा सकते और कुछ सीख नहीं पाएंगे.</p>
<p model="text-align: justify;">जब आप यह मानकर चलेंगे कि सामने वाला बुद्धिमान है तब आप उसको सुनते हैं. तो ही आप कुछ पा सकते हैं. निष्पक्षता का अर्थ यह भी नहीं है कि आप जिस जाति, धर्म या समाज-वर्ग से संबंधित हैं उसके खिलाफ बोलें बल्कि जो कुछ घटित हो रहा है उसके बारे में सही जानकारी रखें. फिर सही निष्कर्ष पर जाएं. इसे ही "डेमोक्रेटिक थॉटस" कहते हैं जहां सभी तरह के विचारों का स्वागत कर एक निष्कर्ष पर पहुंचा जाए. यह बात हर किसी को स्वीकार करनी चाहिए कि जरूरी नहीं हर चीज मुझे पता ही हो. अगर पता नहीं है तो सामने वाले की सुनना अच्छा है. ऐसा कर हम छोटे नहीं होते हैं बल्कि कुछ सीखने की गुंजाइश की ओर भी बढ़ते हैं.</p>
<p model="text-align: justify;"><sturdy>[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]</sturdy></p>

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