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Lance Naik Karam Singh Death Anniversary Pakistan War 1948 Read About His Brav


Lance Naik Karam Singh Pakistan War: देश की आजादी के ठीक बाद पाकिस्तानी कबाइलियों के कश्मीर में हमले की कई कहानियां तो आपने सुनी होगी. इस जंग में भारत ने पाकिस्तान के दांत खट्टे कर दिए थे. हालांकि इस लड़ाई के कई किरदार ऐसे भी थे जिनकी बहादुरी के किस्से दांतों तले उंगलियां दबाने को मजबूर कर देंगे.

ऐसे ही एक फौजी थे लांस नायक करम सिंह. सिख रेजीमेंट के लांस नायक रहे करम सिंह ने इस हमले के दौरान पाकिस्तानी हमलावरों की कई कोशिशों को बेकार कर दिया था. युद्ध में फायरिंग के वक्त गोलियां लगने से वह घायल हो गए, लेकिन उस हालत में भी दुश्मनों पर गेनेड फेंकते रहे. धीरे-धीरे दुश्मन उनके करीब आ गए थे, उनकी राइफल की गोलियां खत्म हो गई तो दुश्मनों को खंजर से मौत के घाट उतार दिया और जीत का स्वाद चखा.
 
जीते जी मिला परमवीर चक्र
लांस नायक करम सिंह भारत के दूसरे फौजी थे जिन्हें जीते जी परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था. उन्हें 1948 में यह सम्मान मिला. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू उनकी बहादुर से बेहद प्रभावित थे. आज करम सिंह की पुण्यतिथि है. 15 सितंबर 1915 को जन्मे करम सिंह का निधन 20 जनवरी 1993 को हुआ था. चलिए आज उनकी पुण्यतिथि पर हम उसकी वीरता के किस्से आपको बताते हैं.



पाकिस्तानी फौज की कोशिशों को आठ बार किया नाकाम

13 अक्टूबर, 1948. यह वह तारीख है, जब पाकिस्तान ने कश्मीर के टिथवाल की रीछमार गली से हमला कर भारतीय सेना को पीछे धकेलने की कोशिश की. मगर मौके पर मौजूद सिख रेजिमेंट की तैनाती थी और फॉरवर्ड पॉइंट पर करम सिंह मौजूद थे. उन्होंने अपनी बंदूक से पाक सेना के हर वार का मुंहतोड़ जवाब दिया. पाकिस्तान ने एक के बाद एक, करीब 8 बार उनकी पोस्ट पर कब्जे की कोशिश की, मगर वे लांस नायक करम सिंह से पार नहीं पा सके. 

किसान के बेटे थे करम सिंह
15 सितंबर 1915 को पंजाब के बरनाला जिले के सेहना गांव में करम सिंह का जन्म हुआ था. पिता उत्तम सिंह पेशे से एक किसान थे. लिहाजा करम सिंह के बचपन का एक लंबा वक्त खेतों के बीच गुजरा. सेना से उनके परिवार का कोई दूर-दूर का नाता नहीं था. 15 सितम्बर 1941 में वह सिख रेजिमेंट का हिस्सा बने. इसके लिए सबसे पहले उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की और सेना में भर्ती होने के लिए खुद को तैयार करते रहे. यह वह दौर था, जब दुनिया द्वितीय विश्व युद्ध का दंश झेल रही थी.

बर्मा अभियान का थे हिस्सा
करम सिंह भी बर्मा अभियान के दौरान एडमिन बॉक्स की लड़ाई का हिस्सा बने. इस दौरान उन्होंने अपने रण कौशल से सभी को प्रभावित किया और मिलिट्री मेडल से सम्मानित किए गए. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद करम सिंह की आंखों ने भारत के बंटवारे को भी देखा.

इस बंटवारे के बाद हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर खींचतान मची हुई थी. पाकिस्तान किसी भी तरह से इस पर कब्जा चाहता था. इसी कोशिश में उसने जम्मू-कश्मीर पर मौजूद भारतीय सेना की टुकड़ियों पर हमला कर दिया. भारतीय सेना की तरफ से इसका मुंहतोड़ जवाब दिया गया. 18 मार्च 1948 को झंगर पोस्ट पर भारतीय तिरंगा लहराकर उसने दुश्मन को वापस जाने का संदेश दिया. मगर दुश्मन नहीं माना और कुपवाड़ा सेक्टर के आसपास के गांवों पर फिर से हमला कर दिया. खासकर टिथवाल को जीतने के लिए वह लंबे समय तक संघर्ष करते रहे.

हर हाल में कब्जा चाहता था पाकिस्तान
अंतत: उन्होंने गुस्से में आकर 13 अक्टूबर, 1948 को पूरी ताकत से हमला कर दिया. पाकिस्तान किसी भी कीमत पर टिथवाल के रीछमार गली और नस्तचूर दर्रे पर कब्जा चाहता था. जोकि, लांस नायक करम सिंह के रहते संभव नहीं था. सिख रेजिमेंट की एक टुकड़ी का नेतृत्व करते हुए करम सिंह ने दुश्मन के हर वार का मुंहतोड़ जवाब दिया. एक के बाद एक 7 कोशिशें करने के बाद दुश्मन आग बबूला हो गया. वह समझ चुका था कि जब तक करम सिंह खड़े हैं, वह इस पोस्ट को जीत नहीं सकते.

लिहाजा उन्होंने गोलीबारी तेज कर दी. इस दौरान करम सिहं बुरी तरह घायल हो गए. मगर उन्होंने घुटने नहीं टेके. खुद को समेटते हुए उन्होंने अपने साथियों का मनोबल बढ़ाया. साथ ही दुश्मन पर लगातार ग्रेनेड फेंकते रहे. लग ही नहीं रहा था कि कोई अकेला जवान लड़ रहा है. वह एक कंपनी की तरह अकेले लड़े जा रहे थे. जब गोलियां खत्म हो गईं तो करीब पहुंचे दुश्मन को खंजर से मौत के घाट उतार दिया था. इस तरह पाकिस्तान के आठवें हमले को भी करम सिंह ने बेकार कर दिया. अपनी इसी वीरता के लिए उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.

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