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India On Way To Become World Largest Economy By 2060, It Will Have To Overcome Many Challenges


Indian Economy: भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर वैश्विक संस्थाओं के साथ ही दुनिया के तमाम देशों में भी काफी ज्यादा भरोसा पैदा हो रहा है. ये भरोसा धीरे-धीरे बढ़ रहा है. यही वजह है कि अब दुनिया के तमाम अर्थशास्त्री और आर्थिक मामलों के जानकार इस बात को लेकर भी चर्चा करने लगे हैं कि भविष्य में भारत के पास दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होगी.

भारत फिलहाल दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. भारत ने ये उपलब्धि पिछले साल सितंबर में यूनाइटेड किंगडम को पीछे छोड़ते हुए हासिल की थी. फिलहाल भारत से बड़ी अर्थव्यवस्था में अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी ही हैं.

बन जाएंगे 2060 तक सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था!

अब ब्रिटेन के ही एक सांसद ने भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर बहुत बड़ी बात कह दी है. ब्रिटिश सांसद करन बिलिमोरिया का कहना है कि 2060 तक भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगी. ऐसा करके उस वक्त तक भारत, अमेरिका और चीन को भी पोछे छोड़ देगा.

भारत की यात्रा पर आए ब्रिटिश सांसद बिलिमोरिया का कहना है कि इस वक्त पूरी दुनिया की नजर भारत पर टिकी है. उन्होंने इतना तक कहा है कि भारत जल्द ही दुनिया की तीन महाशक्तियों में शामिल हो जाएगा. इस तरह का अनुमान दुनिया के कई अर्थशास्त्रियों और आर्थिक संगठनों ने भी लगाया है.

2047 तक 320 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था!

भारत 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ रहा है. ब्रिटिश सांसद बिलिमोरिया का मानना है कि उस वक्त तक भारत का जीडीपी 320 खरब डॉलर हो जाएगा और ऐसा होने पर भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगी. इसी अनुमान को आगे बढ़ाते हुए ब्रिटिश सांसद बिलिमोरिया का कहना है कि 2060 तक भारत अर्थव्यवस्था के मामले में पहले पायदान पर होगा.

भारतीय अर्थव्यव्यवस्था में अपार संभावना

ब्रिटिश सांसद करन बिलिमोरिया के इस बयान के पीछे  का कारण दरअसल भारतीय अर्थव्यव्यवस्था की क्षमता और उसमें निहित अपार संभावना है. भारत पिछले कुछ सालों से सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था है. इसे विश्व बैंक से लेकर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी वैश्विक संस्थाएं भी मानती हैं. इन संस्थाओं की ओर से वैश्विक आर्थिक वृद्धि दर का अनुमान लगातार कम किया जाता रहा है, लेकिन भारत को लेकर हमेशा ही वृद्धि दर के अनुमान में इन संस्थाओं का रुख काफी सकारात्मक रहा है.

सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था

अभी आईएमएफ ने अपने ताजा विश्व आर्थिक परिदृश्य में अनुमान लगाया है कि इस साल भारत की आर्थिक वृद्धि दर 6.1% रहेगी. अप्रैल में आईएमएफ ने इसे 5.9% रहने का अनुमान जताया था, लेकिन 3 महीने के बाद ही आईएमएफ ने इस साल के लिए भारत की आर्थिक वृद्धि दर में 0.2% ज्यादा रहने का अनुमान लगाया है. इसके विपरीत आईएमएफ ने वैश्विक स्तर पर वृद्धि दर में गिरावट का अनुमान लगाया है. इस संस्था के मुताबिक 2023 और 2024 में वैश्विक आर्थिक वृद्धि दर 35 रहने की संभावना है. 2022 में वैश्विक वृद्धि दर 3.55 रही थी.

ग्लोबल इकोनॉमी में ब्राइट स्पॉट

तमाम अंतरराष्ट्रीय आर्थिक रिपोर्ट में भारत अब ग्लोबल इकोनॉमी में एक ब्राइट स्पॉट के तौर पर देखा जा रहा है. भारत को लेकर दुनिया की तमाम बड़ी आर्थिक ताकतें भी काफी उत्साहित है. यही वजह है कि चाहे अमेरिका हो या फिर चीन, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली से लेकर मिस्र, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे अरब देश..सभी देशों में भारत के साथ द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ाने को लेकर काफी कौतूहल है.

मानव संसाधन और बड़ा बाजार ताकत

अगले 35 से 37 सालों में अगर भारत को लेकर कहा जा रहा है कि वो दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकती है तो इसके पीछे दो सबसे बड़े कारण है. पहला कारण है कुशल मानव संसाधन और दूसरा कारण है बड़ा बाजार. अब हम जनसंख्या के मामले में चीन से भी आगे निकल चुके हैं. आबादी में पहले नंबर पर आने के साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था की ये खासियत है कि इसके पास स्किल्ड मानव संसाधन की एक ऐसी फौज है जो दुनिया में किसी देश के पास नहीं है. कम से कम संख्या के लिहाज से ये कह ही सकते हैं और आने वाले वक्त में इस संसाधन के और स्किल्ड होने की संभावना भरपूर है.

विनिर्माण उद्योग को बड़ा आकार देने की क्षमता

इतनी बड़ी आबादी के भारत एक बड़ा बाजार भी है. इसमें घरेलू उत्पादों की खपत की भी अपार संभावनाएं हैं, साथ ही विदेशी बाजार से आने वाले सामानों के लिए भी हम एक बड़े उपभोगकर्ता वाला देश हैं. इस स्थिति की वजह से भविष्य में घरेलू विनिर्माण ((Manufacturing) उद्योग को तो बढ़ावा मिलेगा ही, साथ है वैश्विक विनिर्माण उद्योग के विस्तार में भी भारतीय अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण योगदान होगा.

फिलहाल अर्थव्यवस्था के आकार के हिसाब से पहले नंबर पर अमेरिका है, जिसके अर्थव्यवस्था का आकार करीब 27 ट्रिलियन डॉलर है. उसके बाद चीन का 19.3 ट्रिलियन डॉलर, जापान का 4.4 ट्रिलियन डॉलर और जर्मनी का 4.3 ट्रिलियन डॉलर है. हालांकि भारत की बात करें तो ये आंकड़ा फिलहाल 4 ट्रिलियन डॉलर से कम है. जून में आई एक खबर के मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था के 3.75  4 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचने की बात कही गई थी.

अर्थव्यवस्था के लिए पिछला दो दशक बेहद महत्वपूर्ण

ये सच है कि नरेंद्र मोदी सरकार के 9 साल के कार्यकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार काफी बड़ा हुआ है. लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के बढ़ते आकार के लिए सिर्फ यही 9 साल महत्वपूर्ण नहीं हैं. हम कह सकते हैं कि पिछला दो दशक भारतीय अर्थव्यवस्था के विस्तार के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हैं.

आंकड़ों से समझें तो 2013 में भारत की जीडीपी 1.8 ट्रिलियन डॉलर थी और 2014 में ये आंकड़ा 2 ट्रिलियन डॉलर को पार कर गया था. 2021 में भारत की जीडीपी 3.17 ट्रिलियन डॉलर हो गई. यानी 2013 के बाद के 8 सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार 1.17 ट्रिलियन डॉलर बढ़ा. वहीं 2004 से 2014 के बीच तुलना करें तो जिस साल कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए सरकार बनी थी, 2004 में भारत की जीडीपी एक ट्रिलियन से कम 709 बिलियन डॉलर थी. 2013 के आखिर में ये आंकड़ा 1.85 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया था. यानी 2004 के बाद 9 सालों में में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार 1.14 ट्रिलियन बढ़ा था.

2004 में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार 709 बिलियन डॉलर था, जो अब साढ़े तीन ट्रिलियन डॉलर के आंकड़े को पार कर गया है. इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के बढ़ते आकार के लिए  जितना महत्वपूर्ण पिछला एक दशक रहा है, उतना ही महत्वपूर्ण उससे पहले का दशक यानी 2003 से 2013 भी रहा है.

सैचुरेशन की स्थिति से जूझते बड़े देश

भारत के अगले 35 से 37 साल में दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के अनुमान के पीछे एक और बड़ी वजह है. फिलहाल दुनिया की जो भी बड़ी-बड़ी आर्थिक महाशक्तियां हैं, उनकी अर्थव्यवस्था में अगले कुछ सालों में सैचुरेशन की स्थिति रहने वाली है. चाहे अमेरिका हो या फिर जापान या चीन या जर्मनी..इन सब की अर्थव्यवस्था के लिए ये बात लागू होती है. भारत से फिलहाल इन्हीं 4 देशों की अर्थव्यवस्था बड़ी है. हालांकि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सैचुरेशन की स्थिति नहीं है और न ही आने वाले कुछ दशकों तक ऐसा होने की संभावना है.

आर्थिक चुनौतियों पर भी करना होगा फोकस

भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर इन तमाम उम्मीदों के बावजूद भारत के सामने कुछ आर्थिक चुनौतियां भी है, जिन पर अगले 3 दशक में बहुत ही ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत है. इन्हीं में से एक पहलू है पर कैपिटा इनकम यानी प्रति व्यक्ति आय.

पर कैपिटा इनकम के मामले में हम हैं काफी पीछे

भले ही हम अर्थव्यवस्था के आकार में दुनिया की पांचवें नंबर की ताकत हैं, लेकिन प्रति व्यक्ति आय के मोर्चे पर हम फिलहाल दुनिया के कई देशों से काफी पीछे हैं. अमेरिकन बिजनेस मैगजीन फोर्ब्स की मानें तो अमेरिका का पर कैपिटा इनकम 80,000 डॉलर से ज्यादा है. चीन के लिए ये आंकड़ा 13, 000 डॉलर से ज्यादा है, वहीं जापान के लिए ये आंकड़ा 35,00 डॉलर ज्यादा है. जर्मनी की बात करें को वहां पर कैपिटा इनकम 51, 000 डॉलर से ज्यादा है. इसके विपरीत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भारत में पर कैपिटा इनकम 2,600 डॉलर के आसपास ही है.

पर कैपिटा इनकम के मोर्चे पर दुनिया के कई देशों से पीछे होने के लिए जनसंख्या का बड़ा आकार भी जिम्मेदार है, लेकिन यही एकमात्र कारण है, ऐसा नहीं कहा जा सकता. ऐसे तो पिछले दो दशक में हम प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने में भी काफी आगे बढ़े हैं, लेकिन इस दिशा में दुनिया की बड़ी आर्थिक ताकतों की श्रेणी में आने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को काफी लंबा सफर तय करना पड़ेगा.

प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के मामले में भी पिछला दो दशक काफी महत्वपूर्ण रहा है. 2004-05 में पर कैपिटा इनकम 23,222 रुपये था, जो 2022-23 में बढ़कर 1.72 लाख रुपये हो गया. हालांकि इस मोर्चे पर 2004 से 2014 की अवधि में ज्यादा सफलता मिली थी. 2022-23 के लिए हमारा पर कैपिटा इनकम 1.72 लाख रुपये था. ये 2014 -15 में 86,647 रुपये सालाना था. यानी इस दौरान दोगुना का इजाफा हुआ है. यानी पिछले आठ साल में प्रति व्यक्ति आय में दोगुनी वृद्धि हुई है. वहीं 2004-05 में पर कैपिटा इनकम 23,222 रुपये था. करेंट प्राइस पर पर कैपिटा इनकम 2010-11 में 53,331 रुपये पहुंच गया, जो 2013-14 में बढ़कर 74, 920 रुपये हो गया. यानी 2004-05 के बाद के 9 साल में करेंट प्राइस पर प्रति व्यक्ति आय में तीन गुना से ज्यादा का इजाफा हुआ था.

आर्थिक असमानता को पाटने की बड़ी चुनौती

इसी तरह से अर्थव्यवस्था के बढ़ते आकार के बीच भारत के लिए अगले 3 दशक में आर्थिक असमानता को पाटने की बड़ी चुनौती है. भले ही अर्थव्यवस्था के आकार को बढ़ाने में सफल होते जा रहे हैं, लेकिन अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई, एक ऐसा मुद्दा है जिसका हल निकालने पर भविष्य में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार  और तेजी से बढ़ सकता है.

ऑक्सफैम इंटरनेशनल के मुताबिक तो भारतीय आबादी के शीर्ष 10% लोगों के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 77% हिस्सा है. 2017 में जितनी संपत्ति बनी, उसमें से 73% सिर्फ़ एक प्रतिशत अमीर लोगों के पास गया. जबकि 67 करोड़ भारतीयों की संपत्ति में महज़ एक प्रतिशत का इजाफा हुआ.

वर्ल्ड इनइक्वलिटी डेटाबेस के मुताबिक 2011 से 2020 के बीच देश के एक प्रतिशत लोगों का योगदान देश की कुल संपत्ति में करीब 32 फीसदी था. इस अवधि में देश के 10% लोगों के पास देश की कुल संपत्ति में करीब 64 फीसदी हिस्सा था. वहीं देश के निचले स्तर के 50% लोगों के पास देश की कुल संपत्ति में से महज़ 6 फीसदी हिस्सा था.

इस डेटाबेस के मुताबिक 1961-70 के दशक में देश के एक प्रतिशत लोगों का योगदान देश की कुल संपत्ति में 12 फीसदी से कम था. धीरे-धीरे इन एक प्रतिशत लोगों की हिस्सेदारी बढ़ती गई और ये 2001-2010 में करीब 26 फीसदी तक जा पहुंचा. अभी के हिसाब से देश के एक प्रतिशत लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का करीब 32 फीसदी हिस्सा है. 1961-70 के दशक में देश के 10 प्रतिशत लोगों के पास देश की कुल 43 फीसदी संपत्ति थी, जो 2011-2020 में बढ़कर करीब 64 फीसदी हो गई. यानी समय के साथ ही अमीर और गरीब के बीच की खाई कम होने के बजाय बढ़ती गई है.

क्षेत्रवार-राज्यवार असमानता पर देना होगा ध्यान

आर्थिक असमानता का मसला अर्थव्यवस्था के बढ़ते आकार से ही जुड़ा हुआ ही एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. अमीर-गरीब के बीच खाई को पाटने के साथ ही भविष्य में क्षेत्रवार और राज्यवार जो आर्थिक असमानता है, उसे भी कम करने पर फोकस करना होगा. तभी हम 2060 तक सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के साथ ही दुनिया की सबसे ताकतवर आर्थिक शक्ति भी कहला सकते हैं.

भारतीय अर्थव्यवस्था पर बढ़ता क़र्ज़ भी चुनौती

भारतीय अर्थव्यवस्था पर बढ़ता क़र्ज़ भी एक ऐसी चुनौती है जिसका भविष्य में समाधान निकालना होगा. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 31 मार्च 2014 तक भारत सरकार पर 55.87 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ था. इनमें 54 लाख करोड़ आंतरिक क़र्ज़ और 1.82 लाख करोड़ विदेशी ऋण थे. वहीं इस साल के केंद्रीय बजट के मुताबिक 2022-23 के आखिर तक कुल क़र्ज़ का अनुमान 152.61 लाख करोड़ रुपये लगाया गया. इसमें अतिरिक्त बजटीय संसाधन और कैश बैलेंस जोड़ दिया जाए तो अनुमानित क़र्ज़ 155 लाख करोड़ रुपये के पार हो जाता है. कुल क़र्ज़ में विदेशी ऋण का हिस्सा 7 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा है. यानी पिछले 9 साल में विदेशी ऋण में भी 5 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है.  2004 में भारत सरकार पर कुल क़र्ज़ 17.24 लाख करोड़ रुपये था.

इन पहलुओं से जुड़ी चुनौतियों पर ध्यान देकर ही भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार को अगले 3 से 4 दशक में उस ऊंचाई पर पहुंचाया जा सकता है, जिसको लेकर तमाम वैश्विक आर्थिक संस्थाएं और बड़े-बड़े अर्थशास्त्री अनुमान लगा रहे हैं.

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