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Independence Day 2023 Dastan-E-Azadi Azad Hind Fauj Case Fought On Red Fort Bhulabhai Desai


Dastan-E-Azadi : भारत की आजादी में कई नाम ऐसे हैं जिन्हें बूढ़ा, बच्चा, जवान सभी जानते हैं. वहीं कुछ नाम ऐसे हैं जिन्हें शायद ही कोई जानता और पहचानता हो. आजादी के महासंग्राम में एक ऐसा ही नाम है भूलाभाई देसाई का. भूलाभाई देसाई कांग्रेस के वरिष्ठ नेता होने के साथ-साथ एक नामचीन वकील भी थे. आइए जानते हैं आजादी की इस कहानी में क्यों भूलाभाई देसाई की देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी तारीफ की थी.

बात उन दिनों की है जब भारत में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की अंतिम तैयारी हो रही थी. उसी समय 18 अगस्त 1945 को नेता जी सुभाष चंद्र बोस के निधन की मनहूस खबर आई. 2 सितंबर को दूसरे विश्व युद्ध के समाप्त होने की घोषणा भी हो गई.

इसके बाद ब्रिटिश सेना ने आजाद हिंद फौज के हजारों सिपाहियों को बंदी बनाना शुरू कर दिया. इसी दौरान अंग्रेजों ने आजाद हिंद फौज के तीन प्रमुख अधिकारियों कर्नल प्रेम कुमार सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लन और मेजर जनरल शहनवाज आदिल का कोट मार्शल करते हुए उन्हें फांसी की सजा सुनाई.

अंग्रेजों ने चली ये चाल

यह सब अंग्रेजों की सोची समझी चाल थी. अंग्रेज चाहते थे कि भारतीयों के मन में आजाद हिंद फौज के खिलाफ घृणा का भाव रहे. इसीलिए वह उऩके सैनिकों और अधिकारियों पर गद्दार का ठप्पा लगाना चाह रहे थे. उऩ्होंने आरोप लगाया कि इऩ लोगों ने ब्रिटिश हूकूमत और भारत के खिलाफ जंग छेडी थी. फौज और नेता जी को बदमान करने के इरादे से ही अंग्रेजों ने लाल किले में जनता से सामने खुली अदालत में मुकदमा चलाने का फैसला किया था.  

आजाद हिंद फौज के अफसरों को बचाया

कांग्रेस ने उस समय देश के नामचीन वकीलों की टीम इस मुकदमे को लड़ने के लिए तैयार की. इसमें पंडित जवाहर लाल नेहरू, तेज बहादुर सप्रू, कैलाश नाथ और आसिफ अली थे. वहीं इस टीम का नेतृत्व भूलाभाई देसाई कर रहे थे. उस समय 68 वर्षीय भूलाभाई काफी बीमार थे. डॉक्टरों ने उन्हें मुकदमा लड़ने से मना किया था. बावजूद इसके वह लगातार कई दिनों तक बगैर किसी किताब, कागज के जिरह करते रहे. जगह-जगह सड़कों पर प्रदर्शन होने लगे. अंग्रेजों पर भी दबाव बढ़ने लगा था.

भूलाभाई की दलीलों के आगे अंग्रेज हुए बेबस

भूलाभाई की अकाट्य दलीलों के आगे अंग्रेजों के आरोप टिक नहीं सके और उऩ्हें अंततः तीनों अधिकारियों की फांसी टालनी पड़ी. इसके बाद 4 जनवरी 1946 को उनकी फांसी की सजा को आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया गया. यही नहीं बाद में उन्हें रिहा भी कर दिया गया. अंग्रेजों का आजाद हिंद फौज को बदनाम करने का दांव उल्टा पड़ गया था.

भूलाभाई की इस सफलता ने उनके ऊपर लगे गद्दार के ठप्पे को भी मिटा दिया. उन्हें एक बार फिर विलेन से हीरो बना दिया. कभी भूलाभाई को कांग्रेस पार्टी से बाहर निकालने में भूमिका निभाने वाले पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी बाद में उनकी तारीफ करते हुए कहा था कि अगर वह न होते तो शायद यह फांसी न टलती और आजाद हिंद फौज के ऊपर के गद्दारी का ठप्पा भी नहीं मिट पाता.

भूलाभाई देसाई पर क्यों लगा था गद्दार का ठप्पा

कांग्रेस पार्टी में उस समय भूलाभाई की बड़ी हैसियत हुआ करती थी. एक गलतफहमी ने उऩ्हें नायक से खलनायक बना दिया था. यह घटना इस प्रकार है कि मुस्लिम लीग के मुहम्मद अली जिन्ना ने 1940 में ही अलग मुल्क पाकिस्तान की मांग शुरु कर दी थी. इतिहास के पन्नो में दर्ज कहानी के अनुसार राजगोपालाचार्य ने एक प्रस्ताव रखा था कि अगर मुस्लिम लीग आजादी की लड़ाई में साथ में भाग लेती है तो उसकी इस मांग पर गौर किया जाएगा और इसके लिए एक कमेटी का गठन किया जाएगा, वही इस मामले में सारे फैसले लेगी. जिन्ना ने इससे साफ इंकार दिया था.

1942 के आते-आते आजादी आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी. उसी समय भूलाभाई ने मुस्लिम लीग के एक और बड़े नेता लियाकत खान से एक गुप्त वार्ता की थी कि वह किसी तरह  जिन्ना को आजादी की लड़ाई पहले साथ लड़ने वाले  प्रस्ताव के लिए राजी कर लें.  न जाने किस तरह यह गुप्त वार्ता लीक हो गई.

मीडिया में आने के चलते कांग्रेसी नेताओं ने इस तरह की कोई वार्ता होने इंकार कर दिया. वहीं जिन्ना ने लियाकत खान की तरफ से भी इस तरह की वार्ता होने से इंकार दिया. कांग्रेस पार्टी ने भूलाभाई को गद्दारी तमगा लगाते हुए बाहर का रास्ता दिखा दिया. इस संबंध में भूलाभाई का कहना था कि इस गुप्त वार्ता की जानकारी महात्मा गांधी जी को थी.

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