आम चुनाव, 2024 ऐसे तो देश की तमाम पार्टियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, लेकिन बिहार की राजनीति के नज़रिये से इसका अलग ही महत्व है. बिहार में पिछले तीन लोक सभा चुनाव से बीजेपी विरोधी राजनीति की हवा निकली हुई है. इन तीनों चुनावों में बीजेपी जिस भी दल के साथ चुनाव मिलकर लड़ी है, नतीजे के लिहाज से बीजेपी विरोधी गुट का एक तरह से सफाया होते आया है.
हालांकि बिहार में 2024 का लोक सभा चुनाव पिछले तीन आम चुनाव से बिल्कुल अलग होने जा है. सियासी समीकरण बदले हुए हैं. इस बार बीजेपी और बीजेपी विरोधी दोनों ही गुटों में गठबंधन का नया स्वरूप है. जातिगत सर्वेक्षण का भी प्रभाव आगामी लोक सभा चुनाव पर कम से कम बिहार में ज़रूर देखने को मिलेगा, यह भी तय है.
बिहार में 2024 में अलग सियासी समीकरण
हर दल के लिए बिहार में इस बार बदली हुई परिस्थतियाँ होंगी. बीजेपी की बात करें, तो उसके सामने बिना नीतीश कुमार के साथ बिहार की 40 लोक सभा सीटों में से सबसे ज़ियादा सीटों पर जीत हासिल करने वाली पार्टी बनने का दबाव होगा. बीजेपी बिना नीतीश के साथ के 2014 के लोक सभा चुनाव में यह कारनामा कर चुकी है, लेकिन यह तब हुआ था, जब नीतीश बीजेपी से तो अलग थे ही, आरजेडी से भी अलग थे. इस बार नीतीश की जुगल-बंदी आरजेडी के साथ है. यहीं बिहार में बीजेपी की सबसे बड़ी परेशानी और चुनौती है.
आरजेडी के पास 2004 के चुनाव में एक मौक़ा होगा कि वो बिहार में सबसे अधिक सीट जीतने वाली पार्टी बन सके. ऐसे भी 2019 से तुलना करें, तो आरजेडी के सामने शून्य से शीर्ष पर पहुँचने की चुनौती है और वो इसे जेडीयू के सहारे साधना चाहेगी.
वहीं बिहार की राजनीति में लगातार अपना जनाधार खोते जा रही या कमज़ोर करते जा रही नीतीश की पार्टी जेडीयू के लिए यह करो या मरो का चुनाव होगा. या’नी इस चुनाव से बहुत हद तक नीतीश की राजनीति के साथ ही जेडीयू के भविष्य का भी फ़ैसला होना है.
पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से बिहार की राजनीति में हाशिये पर खड़ी कांग्रेस के लिए भी अपना जनाधार बढ़ाने का एक सुनहरा अवसर होगा. हालांकि यह बहुत हद तक इस पर निर्भर करता है कि महागठबंधन के तहत उसे प्रदेश में चुनाव लड़ने के लिए कितनी सीटें मिल पाती है. उसी तरह से दो फाड़ होने के बाद लोजपा के लिए भी 2024 का चुनाव अस्तित्व की लड़ाई ही है.
बीजेपी के इर्द-गिर्द 3 लोक सभा चुनाव
बिहार में पिछले तीन लोक सभा चुनाव 2009, 2014 और 2019 में नतीजे बीजेपी के इर्द-गिर्द घूमते रहे हैं. इन तीनों ही चुनाव में बीजेपी जिस भी गठबंधन का हिस्सा रही है, उसी के पक्ष में नतीजे गये हैं. हालांकि ये कैसे हुआ है, इसे समझने से पहले 2004 और 1999 के आम चुनाव नतीजों पर एक नज़र डाल लेते हैं.
2004 के नतीजों से बीजेपी को धक्का
आम चुनाव, 2004 के समय बिहार में लालू प्रसाद यादव ने बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए के ख़िलाफ़ एक मज़बूत गठबंधन तैयार किया था. इसमें आरजेडी, राम विलास पासवान की लोजपा, कांग्रेस, सीपीएम और एनसीपी शामिल थी. दूसरी ओर बीजेपी और नीतीश की जेडीयू एक पाले में थी. उस वक़्त प्रदेश में राबड़ी देवी की अगुवाई में आरजेडी की ही सरकार थी.
2004 के लोक सभा चुनाव में बिहार में नतीजे पिछली बार के मुक़ाबले चौकाने वाले थे. जब झारखंड अलग राज्य नहीं बना था, तब बिहार में कुल 54 लोक सभा सीटें थी. लोक सभा चुनाव 1999 में इनमें से एनडीए के खाते में 41 सीटें गई थी, जिसमें 23 पर बीजेपी और 14 पर जेडीयू को जीत मिली थी. वहीं आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन को महज़ 11 सीट से संतोष करना पड़ा था.
इसके उलट 2004 में एनडीए की हालत बिगड़ गई. झारखंड के अलग होने के बाद बिहार में 40 लोक सभा सीटें बची थी. इनमें से एनडीए को महज़ 11 सीटों पर जीत मिली, जिसमें जेडीयू के खाते में 6 और बीजेपी को 5 सीटों पर जीत मिली. वहीं आरजेडी की अगुवाई वाला गठबंधन 29 सीटों पर जीतने में कामयाब रहा. इनमें आरजेडी को 22, लोजपा को 4 और 3 सीटों पर कांग्रेस जीत मिली थी.
2009 से बीजेपी के पाले का दबदबा
आम चुनाव 2004 आखिरी चुनाव था, जिसमें आरजेडी का लोकसभा के हिसाब से दबदबा देखने को मिला था. 2005 में आरजेडी के हाथ से प्रदेश की सत्ता भी चली जाती है. 2009 के लोक सभा चुनाव से बिहार में बीजेपी के पाले का दबदबा क़ायम हो जाता है.
आम चुनाव, 2009 में जेडीयू-बीजेपी एक साथ थी. उसी तरह से आरजेडी और लोजपा एक साथ थी. वहीं कांग्रेस अलग से चुनाव लड़ रही थी. एनडीए के खाते में 40 में से 32 सीटे चली जाती है. इनमें जेडीयू को 20 और बीजेपी को 12 सीटों पर जीत मिलती है. दूसरी तरफ़ आरजेडी 4 सीटों पर और कांग्रेस 2 सीटों पर सिमट जाती है. दो सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवार की जीत हो जाती है. आरजेडी के लिए प्रदेश की सत्ता के लिहाज़ से 2005 से ख़राब समय शुरू हो गया था.
जेडीयू को 2014 में अपनी हैसियत पता चली
आम चुनाव 2014 में बिहार के सियासी समीकरण एक बार फिर से बदल जाते हैं. जेडीयू की राह बीजेपी से जुदा हो गई थी. राम विलास पासवान की लोजपा और नीतीश से अलग हुई उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी एनडीए का दामन थाम चुकी थी. आरजेडी और कांग्रेस एक बार फिर से गलबहियां कर चुकी थी. एनसीपी भी आरजेडी-कांग्रेस के साथ ही थी. नीतीश की पार्टी बीजेपी से अलग होकर अकेले अपना दमख़म दिखाने की ज़ोर आज़माइश कर रही थी.
या’नी 2014 के लोक सभा चुनाव में बिहार में तीन धड़े थे, जो एक-दूसरे के ख़िलाफ़ ताल ठोंक रहे थे. इस बदली हुए परिस्थिति में बिहार में बीजेपी ने सबको पीछे छोड़ दिया. एनडीए को 31 सीटों पर जीत मिली. आरजेडी की अगुवाई वाले को गठबंधन का कुनबा 7 सीटों पर सिमट गया. इसमें आरजेडी को 4, कांग्रेस को 2 और एनसीपी को एक सीट पर जीत मिली. सबसे बुरा हाल नीतीश कुमार की पार्टी का हुआ. जेडीयू सिर्फ़ दो ही सीट पर जीत सकी. जेडीयू के वोट शेयर में भी 8 फ़ीसदी से ज़ियादा की गिरावट आयी.
आरजेडी का 2019 में लोक सभा में सफ़ाया
इसके 5 साल बाद बिहार में फिर से सियासी समीकरण बदल चुका था. आम चुनाव, 2019 में नीतीश कुमार एक बार फिर से बीजेपी के पाले में थे. इस चुनाव में बीजेपी, जेडीयू और लोजपा मिलकर चुनाव लड़ती हैं. एनडीए के ख़िलाफ आरजेडी की अगुवाई में एक गठबंधन चुनौती पेश करता है. एनडीए विरोधी इस गठबंधन में कई पार्टियां होती हैं. एनडीए विरोधी ख़ेमे में आरजेडी, कांग्रेस के साथ ही उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी, जीतन राम मांझी की हम और मुकेश सहनी की पार्टी वीआईपी होती है.
हालांकि 2019 में बीजेपी, जेडीयू और लोजपा की सामूहिक ताक़त के सामने आरजेडी की अगुवाई वाले राजनीतिक कुनबे की हवा निकल जाती है. प्रदेश की 40 से 39 सीटों पर एनडीए की जीत होती है. इनमें बीजेपी को 17, जेडीयू को 16 और लोजपा को 6 सीटों पर जीत मिलती है. वहीं दूसरे पाले में महज़ एक सीट जाती है, जो कांग्रेस के खाते से आती है. आरजेडी के लिए तो 2019 के लोक सभा चुनाव का नतीजा बुरा सपना साबित होता है. खाता नहीं खुलने की वज्ह से लालू यादव की पार्टी का लोक सभा से पूरी तरह से सफाया हो जाता है. बीजेपी की ताक़त से मदद पाकर 2014 में 3 सीटें जीतकर इतराने वाली उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी का 2019 में डब्बा गोल हो जाता है. ख़ुद उपेंद्र कुशवाहा दो जगह काराकाट और उजियारपुर सीट से चुनाव लड़ते हैं. दोनों ही सीटों पर उन्हें बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ता है.
बिहार की राजनीति की अनोखी बातें…
पिछले कुछ लोक सभा चुनावों का विश्लेषण करें, तो बिहार की दलगत राजनीति को लेकर कुछ बातें सामने आती हैं. इनसे आरजेडी, जेडीयू, बीजेपी के साथ ही कांग्रेस और लोजपा के महत्व और राजनीतिक हैसियत को लोकसभा चुनाव के नज़रिये से समझा जा सकता है.
लगातार कमज़ोर होती जा रही है जेडीयू
सबसे पहले तो नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू पर बात करते हैं. क़रीब 18 साल से नीतीश कुमार और उनकी पार्टी बिहार की सत्ता पर क़ाबिज़ है. लेकिन इस अवधि में जेडीयू का जनाधार लगातार कमज़ोर होते गया है. जेडीयू 2010 के बाद से लगातार कमज़ोर होते गई है. यह विधानसभा चुनाव के नतीजों से भी पता चलता है. विधान सभा के नज़रिये से 2015 में सबसे बड़ी पार्टी होने का तमगा जेडीयू के हाथों से छीन जाता है. जेडीयू 2020 के विधान सभा चुनाव में तीसरे नंबर की पार्टी बन जाती है.
जेडीयू 2010 में 115 सीट पर थी और 2020 में 43 पर पहुंच गई यानी उस वक्त से तुलना करने पर नीतीश की पार्टी को 72 सीटें कम हो गई. साथ ही विधानसभा चुनाव में जेडीयू को सबसे ज्यादा वोट शेयर 2010 में ही हासिल हुआ था जो 22.58% था. ये गिरकर 2020 में 15.39% पर जा पहुंचा. यानी इन 10 सालों में जेडीयू के वोट शेयर में 7 फीसदी से ज्यादा की कमी आई. पिछले 3 विधान सभा चुनाव के विश्लेषण और नतीजों से स्पष्ट है किपिछले एक दशक में नीतीश की पार्टी की पकड़ बिहार की सियासत पर ढीली हुई है.
अकेले दम पर राजनीतिक हैसियत वैसी नहीं
हम 2014 में देख चुके हैं कि अगर बीजेपी या आरजेडी में से किसी का साथ न मिले तो लोक सभा में जेडीयू का प्रदर्शन कितना नीचे चला जाता है. आँकड़े गवाही देते हैं कि जेडीयू को अगर बीजेपी या आरजेडी का साथ नहीं मिलता है, तो उसका प्रदर्शन बेहद ख़राब रहता है. 2014 के लोक सभा चुनाव से पता चल गया था कि नीतीश की पार्टी अकेले अपने दम पर बिहार की राजनीति में (ख़ासकर लोक सभा चुनाव में) कुछ बड़ा हासिल नहीं कर सकती है.
सहारे पर टिकी है जेडीयू की राजनीति
जेडीयू की ताक़त या तो बीजेपी के साथ रहने पर है या फिर आरजेडी के साथ रहने पर है. जैसे ही नीतीश कुमार की पार्टी को या तो बीजेपी का या आरजेडी का सहारा मिलता है, जेडीयू के राजनीतिक अरमानों को पंख लग जाता है. आरजेडी के साथ से कैसे जेडीयू की ताक़त बढ़ जाती है, यह हम सब 2015 के विधान सभा चुनाव में देख चुके हैं. अब आगामी लोक सभा चुनाव में जेडीयू को साबित करना है कि आरजेडी के साथ रहने पर भी वो बिहार में बीजेपी के साथ की तरह ही बेहतर प्रदर्शन कर सकती है. विधान सभा में जेडीयू यह कारनामा 2015 में कर चुकी है. 2005 से नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में सिरमौर जेडीयू की ताक़त की बदौलत नहीं, बल्कि पाला बदलने के कौशल की वज्ह से बने हुए हैं.
अगर 2024 में पार्टी का प्रदर्शन बेहतर नहीं हुआ, तो फिर नीतीश कुमार के साथ ही जेडीयू के भविष्य पर भी ग्रहण लग सकता है. इससे भविष्य में बिहार की राजनीति में बीजेपी और आरजेडी के बीच आमने-सामने की लड़ाई की संभावना को बल भी मिलेगा.
आरजेडी के लिए शून्य से शीर्ष पर जाने की चुनौती
अब लालू प्रसाद जनता दल से अलग होकर लालू प्रसाद यादव ने जुलाई 1997 में राष्ट्रीय जनता दल या’नी आरजेडी की नीव रखी थी. उसके बाद से ऐसा कभी नहीं हुआ था कि आरजेडी बिहार में लोक सभा की 4 सीट से कम जीती हो. आरजेडी को बिहार में 1998 में 17 सीट, 1999 में 7 सीट, 2004 में 22 सीट, 2009 और 2014 में 4-4 लोक सभा सीट पर जीत मिली थी. लालू प्रसाद यादव का ही प्रभाव था कि उससे पहले लोक सभा चुनाव में 1989 से लेकर 1996 तक बिहार में जनता दल का दबदबा था. बिहार में जनता दल को 1989 में 32 सीट, 1991 में 31 और 1996 में 22 सीटों पर जीत मिली थी. इन आँकड़ों से ब-ख़ूबी समझा जा सकता है कि 2019 में आरजेडी की हैसियत क्या हो गई थी.
लोक सभा में 2009 से आरजेडी का बुरा दौर
लोक सभा के लिहाज़ से 2009 से आरजेडी का बुरा दौर शुरू हो गया था, जिससे लालू प्रसाद यादव की पार्टी अब तक उबर नहीं पाई है. लेकिन 2024 में आरजेडी की उम्मीदें फिर से बढ़ गई है. नीतीश का साथ पाकर एक बार फिर से आरजेडी लोक सभा में अपनी पुरानी हैसियत वापस पाना चाहती है.
ताज़ा जातिगत गणना से भी आरजेडी को सबसे ज़ियादा लाभ की संभावना है. पहले से अनुमान था, लेकिन जातिगत गणना से अब आधिकारिक तौर से पता चल गया है कि बिहार में जातिवार यादवों की संख्या सबसे अधिक है. यादव समुदाय को आरजेडी का कोर वोट बैंक माना जाता है और तमाम ख़राब प्रदर्शन के बावजूद पार्टी के अस्तित्व से ही यह वोट बैंक आरजेडी के साथ हमेशा बना रहा है. बिहार की राजनीति में अभी भी आरजेडी के पास एक एडवांटेज है. फ़िलहाल यही एक पार्टी है, जो अपने बलबूते बिहार की सत्ता को हासिल करने की क़ुव्वत सबसे ज़ियादा रखती है. इस मामले में बीजेपी और जेडीयू पर वो भारी है.
दो दशक में बीजेपी की पकड़ मज़बूत हुई है
अब बात करते हैं बीजेपी की. बिहार की सत्ता बीजेपी के लिए एक सपना है. बिहार उत्तर भारत के उन राज्यों में से एक है, जहाँ बीजेपी अकेले अपने दम पर सरकार अब तक नहीं बना पायी है. प्रदेश की सत्ता में क़रीब 12 साल रही है, लेकिन जेडीयू की भागीदार बन कर ही रही है. बिहार में बीजेपी 1990 के दशक से पैर फैलाना शुरू कर दी थी, लेकिन पिछले दो दशक में बीजेपी ने प्रदेश में अपना जनाधार तेज़ी से मज़बूत किया है.
जेडीयू के साथ से बीजेपी को मिलता रहा है लाभ
झारखंड के अलग होने के बाद हुए फरवरी 2005 में हुए पहले विधान सभा चुनाव में बीजेपी 243 में से 37 सीटें जीतकर आरजेडी और जेडीयू के बाद तीसरे नंबर की पार्टी बनती है. फिर अक्टूबर-नवंबर 2005 में हुए विधान सभा चुनाव में बीजेपी 55 सीटें जीतकर जेडीयू के बाद दूसरे नंबर की पार्टी बन जाती है. 2010 में बीजेपी की गाड़ी 91 सीटों पर पहुंच जाती है. हालांकि सबसे बड़ी पार्टी जेडीयू ही रहती है. विधान सभा चुनाव, 2015 में जेडीयू-आरजेडी के साथ आने से एक बार फिर से बीजेपी महज़ 53 सीट जीतकर तीसरे नंबर की पार्टी बन जाती है. इसके अगले विधान सभा चुनाव में या’नी 2020 में जेडीयू का साथ मिलने से बीजेपी 74 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनते-बनते रह जाती है. आरजेडी को बीजेपी से एक सीट ज़ियादा मिल जाती है.
अकेले सबसे बड़ी ताक़त बनने की चुनौती
जहां तक लोक सभा चुनाव की बात है झारखंड के अलग राज्य बनने के बाद बिहार में जेडीयू के साथ चुनाव लड़कर बीजेपी को 2004 में 5 सीटों पर, 2009 में 12 सीटों पर और 2019 में 17 सीटों पर जीत मिलती है. 2014 में जेडीयू से अलग होने पर बीजेपी को 22 सीटों पर जीत मिलती है. यह तब हो पाता है, जब जेडीयू, बीजेपी से अलग होने के बावजूद आरजेडी का हिस्सा नहीं बनती है. बिहार में बीजेपी के लिए भी यह कहना उतना ही सही है कि जेडीयू के साथ मिलने से ही उसकी ताक़त अभी तक इस रूप में सामने आते रही है. 2014 के लोक सभा चुनाव में भी आरजेडी से दूरी बनाकर एनडीए का हिस्सा नहीं होते हुए भी एक तरह से जेडीयू ने बीजेपी को ही फ़ाइदा पहुंचाया था.
कांग्रेस की स्थिति में सुधार की संभावना कम
कांग्रेस फ़िलहाल बिहार में उस स्थिति में नहीं है कि उसकी राजनीतिक हैसियत को अकेले दम पर तौला जा सके. लोक सभा चुनाव के नज़रिये से तो कांग्रेस की स्थिति और भी दयनीय कही जा सकती है. कांग्रेस को 2019 में एक सीट पर, 2014 और 2009 में में दो-दो सीट पर जीत मिली थी. वहीं आम चुनाव, 2004 में आरजेडी के साथ मज़बूत गठबंधन में होने पर भी कांग्रेस 3 ही सीट जीत पायी थी. कांग्रेस के लिए भी यही कहा जा सकता है कि वो पिछले ढाई दशक में आरजेडी का सहारा पाकर किसी तरह से बिहार में अपनी राजनीतिक जड़ को बचाये रखने में सफल होते आई है.
लोजपा की नैया भी सहारे पर टिकी रही है
बिहार की राजनीति में पिछले दो दशक से बीजेपी, आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस के अलावा लोक जनशक्ति पार्टी का भी दख़्ल रहा है. कभी लालू के साथी रहे राम विलास पासवान ने नवंबर 2000 में लोजपा या एलजेपी का गठन किया था. अकेले दम पर तो लोक सभा चुनाव में एलजेपी का कोई ख़ास असर नहीं है. पासवान समुदाय इस पार्टी का कोर वोट बैंक रहा है. ताज़ा सर्वेक्षण के मुताब़िक बिहार में पासवान (दुसाध), धारी, धरही की आबादी 5.3 फ़ीसदी है.
पार्टी के गठन के बाद लोजपा 2004 में आरजेडी गठबंधन का हिस्सा बन 4 लोक सभा सीट जीतने में सफल रही थी. वहीं 2009 में आरजेडी के साथ रहने के बावजूद कोई सीट नहीं जीत पाई थी. 2014 और 2019 के आम चुनाव में बीजेपी के साथ से लोजपा को 6-6 सीटों पर जीत मिली थी. एक तथ्य यह भी है कि आरजेडी के साथ के मुक़ाबले अगर लोजपा को बीजेपी का साथ मिलता है, तो उसका प्रदर्शन ज़ियादा बेहतर रहता है.
बिना सहारा लोजपा की हैसियत अधिक नहीं
इन आँकड़ों से स्पष्ट है कि लोजपा की राजनीति से नतीजे तभी निकलते हैं, जब उसे या तो बीजेपी का साथ मिलता है या आरजेडी का. राम विलास पासवान के निधन के बाद विधान सभा चुनाव, 2020 में चिराग पासवान अकेले चुनाव लड़ने का फ़ैसला करते हैं. लोजपा 135 सीटों पर चुनाव लड़ती है, लेकिन मात्र एक सीट पर जीत पाती है. इससे समझा जा सकता है कि अकेले लोजपा की क्या राजनीतिक हैसियत है. अब तो लोजपा दो हिस्सों में बँट चुकी है. हालांकि अब चिराग पासवान गुट भी फिर से एनडीए का हिस्सा बनकर 2024 में अपनी राजनीतिक हैसियत को पाने की कोशिश में है.
एक-दूसरे के सहारे पर टिकी बिहार की राजनीति
झारखंड के अलग राज्य बनने के बाद बिहार की राजनीति पर किसी एक दल का प्रभुत्व नहीं बन पाया है. यहां मुख्य तौर से बीजेपी, जेडीयू और आरजेडी ये तीन धुरी हैं. 2005 से हुए चुनाव पर नज़र डालने से पता चलता है कि इनमें से दो पार्टी हर चुनाव, चाहे विधान सभा हो या लोक सभा, एक साथ होती है. इसमें लोक सभा चुनाव, 2014 अपवाद मान था, जिसमें बीजेपी, जेडीयू औरआरजेडी तीनों अलग-अलग चुनाव लड़ रही थीं. जिस तरफ़ भी इन तीनों में से दो पार्टियां एक साथ हो जाती हैं, नतीजा उसके पक्ष में जाता है.
बिहार की राजनीति पर जाति फैक्टर का दबदबा
इसका कारण बिहार की राजनीति पर जाति का हावी होना है. चाहे बीजेपी-जेडीयू का गठबंधन बन जाय या फिर आरजेडी-जेडीयू का गठबंधन..जाति फैक्टर की वज्ह से उसी गठबंधन का पलड़ा भारी रहता है. हाँ, इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि बिहार में जो मौज़ूदा सियासी हालात हैं, उसमें अगर बीजेपी, जेडीयू और आरजेडी तीनों ही अलग-अलग चुनाव लड़ती हैं, तो बीजेपी का पलड़ा भारी हो जायेगा. यह सबक़ 2014 के लोक सभा चुनाव में हर किसी को मिल चुका है.
बिहार में बीजेपी विरोधी राजनीति के लिए 2024 मौक़ा
अगर 2024 में भी बिहार में यही सियासी समीकरण काम किया, तो फिर बीजेपी की मुश्किलें यहां बढ़ जायेगी. बीजेपी के सामने 2024 में चुनौती है कि वो लोक सभा चुनाव में उस परिस्थिति में भी बेहतर प्रदर्शन करके दिखाये, जब जेडीयू, एनडीए में न हो, अकले भी चुनाव नहीं लड़ रही हो, बल्कि आरजेडी के साथ हो.
ऐसे भी जातिगत सर्वेक्षण से 2024 का चुनावी ताप अभी से काफ़ी बढ़ गया है. पहले भी बिहार में जातियों को ध्यान में रखकर पार्टियां रणनीति बनाती आई हैं. अब नए आँकड़ों से बिहार में बीजेपी विरोधी राजनीति को जातिगत आधार पर और ज़ियादा फलने-फूलने का मौक़ा मिल गया है.
ऐसे में नीतीश के साथ ही तेजस्वी का मुख्य ज़ोर इसी पर रहेगा क्योंकि प्रदेश की जनता के सामने विकास के मुद्दे पर अपनी बातें रखने के लिए इन दोनों ही दलों के पास कुछ ख़ास है नहीं. पिछले 33 साल से बिहार की जनता ने लालू परिवार या नीतीश कुमार की सरकार को ही देखा है. उसके बावजूद अभी भी विकास के तमाम पैमानों पर देश के सबसे पिछड़े राज्यों में बिहार की गिनती ब-दस्तूर जारी है.
बिहार में बीजेपी को नुक़सान की आशंका
बिहार एक ऐसा राज्य है, जिसमें पश्चिम बंगाल के बाद बीजेपी को सबसे ज़ियादा नुक़सान की आशंका है. यह देखना दिलचस्प होगा कि आगामी लोक सभा चुनाव में बीजेपी कैसे बिहार में आरजेडी-जेडीयू के साथ से बने जातिगत समीकरणों का तोड़ निकाल पाती है. इसमें तो कोई दो राय नहीं है कि जब बिहार में बीजेपी के साथ जेडीयू रहती है, तो जीत के लिए एनडीए को अधिक गुणा-गणित करने की ज़रूरत नहीं पड़ती है. लोक सभा चुनाव 2009 और 2019 का अनुभव यही कहता है कि बीजेपी-जेडीयू के साथ होने से सियासी समीकरण ही ऐसे बन जाते हैं कि बिहार की ज़्यादातर लोक सभा सीटों पर जीत की संभावना प्रबल हो जाती है. हालांकि 2024 में बीजेपी के पक्ष में यह स्थिति नहीं होगी, जिससे बीजेपी के लिए बिहार में बाकी प्रदेशों की तुलना में मुश्किलें बढ़ गई है.
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