<p>जमीयत उलेमा ए हिंद, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और कांग्रेस प्रवक्ता आलोक शर्मा के बाद अब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीएम भी 1991 के प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट को बनाए रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई है. सीपीएम ने देश भर में मस्जिदों और दरगाहों के हिंदू मंदिर होने का दावा करते हुए दाखिल हो रहे मुकदमों का विरोध किया है. पार्टी ने इसे धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरा बताया है.</p>
<p>1991 का प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट कहता है कि देश के हर धार्मिक स्थल की जो स्थिति 15 अगस्त 1947 को थी, उसे बदला नहीं जा सकता. इस कानून को चुनौती देते हुए कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई हैं. इन याचिकाओं में कहा गया है कि यह कानून हिंदू, जैन, सिख और बौद्ध समुदाय को अपना अधिकार मांगने से वंचित करता है. किसी भी मसले को कोर्ट तक लेकर आना हर नागरिक का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन ‘प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट’ नागरिकों को इस अधिकार से वंचित करता है. यह न सिर्फ न्याय पाने के मौलिक अधिकार का हनन है, बल्कि धार्मिक आधार पर भी भेदभाव है.</p>
<p><strong>2020 से लंबित याचिकाओं पर केंद्र ने नहीं दिया जवाब</strong></p>
<p>सुप्रीम कोर्ट में वकील अश्विनी उपाध्याय के अलावा बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी, विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ जैसे कई याचिकाकर्ताओं ने कानून को चुनौती दी है, लेकिन 2020 से लंबित इन याचिकाओं पर केंद्र सरकार ने अब तक जवाब दाखिल नहीं किया है. 12 दिसंबर को चीफ जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस पी वी संजय कुमार और के वी विश्वनाथन की विशेष बेंच इस मामले को सुनेगी.</p>
<p><strong>सीपीएम ने मांगी दाखिल याचिका की मांग</strong></p>
<p>सीपीएम के पोलित ब्यूरो सदस्य प्रकाश करात के जरिए दाखिल हुई याचिका में मांग की गई है कि प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट को चुनौती देने वाली सभी याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट खारिज कर दे. पार्टी ने कहा है कि यह कानून भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे के मुताबिक है. संविधान से हर नागरिक को समानता, सम्मान से जीवन जीने और धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार मिला है. यह कानून ऐसे अधिकारों का संरक्षण करता है. इसमें बदलाव सामाजिक समरसता को नुकसान पहुंचाएगा.</p>
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